यादों के घेरे में – अरुण दादा
आज शाम जब पता चला कि अरुण पांडे अब इस दुनिया से रुख़्सती ले चुके हैं तो कहीं दिल में दर्द का एक ज्वार उठा। अरुण दादा वो शख़्सियत रहे जिनसे कोई एक बार मिल ले तो दोबारा मिलने की चाहत रखता था। उनसे हुई कई मुलाकातें अविस्मरणीय रहीं। वे सिर्फ रंगकर्म की कार्यशाला नहीं लेते थे बल्कि वे रंग-कार्यशाला चलाने वाले ऐसे व्यक्तित्व रहे जो रंगकर्म करने वाले हर प्रतिभागी से दोस्ती और संवाद का वो रिश्ता बना लेते थे कि हर एक को महसूस होता था कि दादा सबसे करीब मेरे हैं मुझे भी यह गुमान रहा। दादा हर एक के अधिकार भाव का सहजता से सम्मान रखते थे चाहे आप किसी भी उम्र के हों। कार्यशाला के दौरान कार्यशाला डायरी लिखने के लिए प्रेरित करना और उसे पढ़ना असल में नए रंगकर्मियों के लिए किस तरह से ज़मीन तैयार कर रहा था इसका अंदाज़ा तो आज पलटकर देखने पर महसूस हो रहा है। व्यक्तिगत जीवन में दादा का स्थान अनमोल है। दादा की कार्यशाला ने इप्टा से जुड़ने का जो तार जोड़ा वो अब जीवन के साथ अटूट रूप से जुड़ गया है। उनसे कार्यशाला के दौरान गपशप का एक मज़ेदार किस्सा है कि थियेटर करने के लिए संसाधनों का कितना अभाव रहता है तो उन्हें हँसते हुए कॉलेज की उम्र में कहा कि हम रंगकर्मियों को धनी व्यक्ति से शादी करना चाहिए जिससे रंगकर्म करने में संसाधनों में बाधा न आए जब यह कहा था तो उन्होंने भी उम्र के कच्चेपन और सोच पर हामी भरी थी पर अब समझ आता है कि जज़्बा ही वो आग होती है जिसके बलबूते ही आप रंगकर्म करते हो। जीवन भर वे इस आग को अपने जज़्बे से धौंकते रहे और अपने आसपास संभावनाशील रंगकर्मियों की पौध तैयार करते रहे।
दादा से आख़िरी मुलाक़ात २०११ -२०१२ में हुई थी जब उनके पास जबलपुर गई थी। दो दिन के साथ में वे लगातार उत्साहित करते रहे तुम इप्टा का काम जमशेदपुर में शुरू करो। इसके बाद फोन में हुई बात में मीनू भाभी ने वादा किया था कि उनकी सेवा निवृत्ति के बाद वे लोग जमशेदपुर आएंगे पर वो मुलाकात अब अधूरी रह गई।
कई वर्ष पूर्व परिकथा के रंगकर्म विशेषांक के लिए अरुण दादा पर लिखा था जो उनके जीवन की एक बहुत छोटी सी तस्वीर ही दिखाता है फिर भी उन्हें याद करते हुए साझा कर रही हूँ। अरुण दादा की बोलती – मुस्कुराती आँखों और उनके थियेटर के प्रति जूनून को सलाम !!
लोक की खोज में अरूण पांडे
एक सपना जीवन का आधार बनता है. उस सपने की जमीन पर व्यक्ति एक पग धरता है और विश्वास से भर उठता है. यह वो क्षण होता है जब सपना हकीकत में तब्दील हो रहा होता है और यही वो क्षण भी होता है जब उसकी सपनीली आंखों में, पहले सपने से जुड़ा (या जुदा) मगर पहले से बड़ा, एक नया सपना तैरने लगता है. बस! इसी तरह सपनों की धरा पर पांव बढाते व्यक्ति कब अपने लिये यथार्थ की ठोस ज़मीन रच लेता है उसे पता ही नहीं चलता. हर नये सपने के पीछे, उसके हर कदम के पीछे सपने की बहुत लंबी रेल होती है जिसके हर डिब्बे उसके जीवनानुभवों से उपजे विचारों की मजबूत कड़ियों से जुड़े होते हैं. यथार्थ की धरातल पर सपनों की इस रेल को आगे बढ़ाने के लिये कोई इसमें लगातार ईंधन डालता है और कोई इसके लिये सही दिशा निर्दिष्ट करते इसके साथ चलता है. इस तरह की अनंत रेलगाड़ियां, चलती-दौड़ती-भागतीं या दम लेने को खड़ी, हमारे आसपास उपस्थित हैं. और ऐसे ही एक सपनों की सवारी को यथार्थ की कठोर ज़मीन पर लगातार सही दिशा में ले जाने वाले चालक हैं अरूण पांडे.
अरूण पांडे ने जीवन के कई क्षेत्रों में अपना आधिकारिक दख़ल दिया और सराहे गये पर निश्चित ही वो एक सपना जिसे वो आज तक जी रहे हैं वो है थियेटर. घर में महीने भर मंचित होने वाली रामलीला में हिस्सेदारी से उन्होंने रंगजगत में कदम रखा. और साल के बचे महीनों में भी लगातार इसे खेलते रहने की इच्छा से रोपा गया पौधा आज जिस बड़े आकार को प्राप्त कर चुका है उसे देखकर निश्चित ही वे कभी-कभी आश्चर्यचकित होते होंगे. यदि वे ऐसा नहीं महसूस करते हों तो बस इसलिए ही कि वे इसके और वृहद रूप के सपने को साकार होता देखना चाहते होंगे. अपने छात्र-जीवन से ही मंच के जिस जादुई प्रभाव को उन्होंने अनुभूत किया उसे न सिर्फ़ अपने जीवन में वे पूरी शिद्दत से जिये जा रहे हैं बल्कि अपने संपर्क में आने वालों को भी इसके जादू में बांधकर रख पाने में वो सफल हुए हैं. इस जादुई प्रभाव को यथार्थ के साथ सही कॉम्बीनेशन में मिक्स करने में ही किसी कला की सार्थकता है. जीवन में सफलता-असफलता के दो विपरीत ध्रुवों में सामंजस्य बैठा पाना सामान्य जन के लिये कठिन अभ्यास हो सकता है पर दृढनिश्चयी व्यक्तित्व के धनी इन ध्रुवों से परे एक राह पकड़ बस आगे आने में यकीन रखते हैं. कुछ इसी अंदाज़ में अरूण पांडे ने इस राह को चुना. बिना लाग-लपेट के स्पष्ट वैचारिक सरोकारों के साथ बिन संसाधनों के काम शुरु किया और धीरे-धीरे कारवां जुड़ता गया. हालांकि आज वैचारिकता का आग्रह हास्यास्पद, कम समझी का नमूना माना जाता है मगर आज भी उनके सान्निध्य में आने वाले युवाओं की बहुत बड़ी संख्या थियेटर, अभिनय और इससे जुड़े कामों से ही आगे बढ़े जा रही है.
परंपरा, सामाजिकता और राजनैतिक सरोकारों से निरंतर अधुनातन होता हमारा थियेटर समृद्ध है. इसके आचरण को साफ़ और स्पष्ट रखने वाले रंगकर्मी ऐसे कार्यकर्ता भी हैं जिनमें समाज को मानवीय और नैतिक सरोकारों से जोड़े रखने का जज़्बा है और जिनकी बदौलत ही आज के उपभोक्तावादी समाज में भी हम नकलची नहीं कहलाते.
१९५५ में बनारस में जन्मे अरूण पांडे रचनात्मकता की ऊर्जा से भरे आज भी क्रियाशील हैं . बचपन और युवावस्था में अपने आप से अनजान अरूण पांडे थे और बनारस की संकरी गलियां थीं. वो गलियाँ जिसके हर मोड़ पर कई तरह के कामगार बसते थे और रंगों, सूतों, जरियों और मिट्टी को बरतते, आकार देते कलाकार थे. उन कलाकारों के व्यवहार और काम को उन्होंने सूक्ष्मता से परखा. धीरे-धीरे अपनी रूचि परिष्कृत करने के साथ-साथ क्राफ्ट में स्वयं को पारंगत करने की दिशा में कदम बढाया. इन सब के मौन संगीत से जुदा चौराहों पर शहनाई की तान, कत्थक की थाप और तबले की चक्करदार तिहाईयों में भी अनगढ़ अरूण पांडे अपनी लय खोजने में मगन रहे. सावन में कजरी, चैता और बिरहा को चौराहे-चौराहे पर सुना. बड़े होने तक उनकी आंखें, कान और मन निश्चित ही किसी मिट्टी के कच्चे बर्तन के पकने की प्रक्रिया में रहे. इसी बीच अपने अध्ययन के दौरान हरिश्चन्द्र इंटर कालेज में इन्होंने नाटकों में हिस्सा लिया. भारतेंदु द्वारा स्थापित इस कॉलेज में नाट्य समारोह के वार्षिक आयोजन में भारतेंदु द्वारा लिखित नाटकों का ही मंचन होता था.
आठवीं से बारहवीं की पढ़ाई के दौरान ही अरुणजी ने ’भारत दुर्दशा’, ’छोटी गैबी’, ’वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’, ’अंधेर नगरी’ जैसे नाटकों में भाग लिया. पढाई के दौरान ही ब.व.कारंत की ४० दिवसीय नाट्य कार्यशाला ने उन्हें ऐसा विरल और सघन अनुभव सौंपा जिसे एक अमूल्य थाती की तरह उन्होंने संजोया और जिसकी सघनता में अब तक कोई कमी नहीं आयी है. रंगकर्मियों के प्रति आत्मीयता का जो संस्कार अरूण पांडे ने कारंतजी से पाया उसे अपने में समाहित करने की कोशिश में वे अनवरत लगे रहे हैं. आज जब रिश्ते निरंतर छीज रहे हैं, लोग गलाकाट प्रतिस्पर्धा में रत हैं, वे अपने बनाये रिश्तों को सहेजने की कोमल कोशिश को भी उतना ही महत्व देते हैं जितना थियेटर को. थियेटर के प्रति उनके समर्पण और ईमानदारी की वजह से ही मतभेद होने पर भी अनेक रंगकर्मी सदैव उनका सहयोग करने को तत्पर रहते हैं.
बनारस के रंग में वे ऐसे रमे थे कि यहां से कहीं और जाने के बारे में युवा अरूण ने सोचा भी नहीं होगा पर वहां से न निकलते तो हरिशंकर परसाई, अलखनंदन, ज्ञानरंजन और राजेन्द्र दानी से वे कैसे मिलते? पिता के तबादले ने उनके सीखने-समझने की प्रक्रिया को अवरूद्ध किया और इन्हें यूं लगा कि जीवन को मिलने वाले अनगिनत कलास्रोत किसी ने इनसे छीन लिया और स्वयं से समझौता कर जबलपुर आये सिर्फ इस दिलासा में कि समय के प्रवाह में बड़े-बड़े थपेड़ों के प्रभाव मिट जाते हैं. इस बारे में अरूण जी का कहना है –
’ठेठ बनारसी रंगढंग में ढले होने की वजह से जबलपुर आने की मेरी ज़रा भी इच्छा नहीं थी. मन मारकर पिता के आने के २ बरस बाद मैं जबलपुर आया.’ भले ही आज लंबे समय बाद पीछे मुड़ कर देखने पर उन्हें महसूस होता होगा कि यदि नहीं आते तो आज का अरूण पांडे कुछ और होता. खैर! इस तरह की कल्पनायें और उनके साकार होने न होने की अनेक तस्वीरों को हम गाहे-ब-गाहे रंगते रहते हैं.
जबलपुर में उस समय नाटकों के मंचन में निरंतरता थी. कई रंग संस्थाएं सक्रिय थीं और उनके काम से जुड़ी तमाम खबरों का केंद्र था शहर का मालवीय चौक. शहीद स्मारक सभागार में नाटक मंचित होते और उसकी समीक्षा रात को ही मालवीय चौक में हो जाया करती. यहां लेखक, निर्देशक, अभिनेता, अभिनेत्रियां, पत्रकार और संगठनकर्ता सभी इकट्ठे होते और विचार-विमर्श तथा बहसों में हिस्सा लेते. किसी भी शहर में इस तरह के ’अड्डों’ का अपना सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व है. किसी नये आगंतुक के लिये इस तरह के अड्डे शहर को समझने में भी सहायक होते है. हालांकि आज के समय में ऐसे ठौर-ठिकाने धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं. संभवतः विकास की परिभाषा में शहर का जितनी तेज़ी से फैल रहे हैं उतनी ही तेज़ी से ऐसी जगहों के स्थान सिकुड़ते जा रहे हैं. आने वाले समय में निश्चित ही यह लोगों के संस्मरण में होंगे और हमारे बाद की पीढियां पढ़ कर अचंभित होंगी. बहरहाल अरूण पांडे के जबलपुर आने के बाद विनोद श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित नाटक ’पांच लोफर’ देखने के दौरान उनका यहां के रंगकर्मियों से मेलजोल बढ़ा. विश्वभावन देवलिया द्वारा हरिशंकर परसाई की कहानी नागफनी की कहानी ’’लंगड़ी टांग’’ के नाम से तैयार हो रही थी जिसमें उन्हें अवसर मिला. कुछ नाटक करने के बाद पढ़ाई में ध्यान लगाने के बारे में सोचा पर सांइस कालेज की सांस्कृतिक गतिविधियों में ये हिस्सा लेते रहे.
थियेटर करने के साथ-साथ उन्होंने जीविकोपार्जन के लिये लगभग ३५-३६ बरस पत्रकारिता भी की. जब जबलपुर से प्रकाशित ’नवीन दुनिया’ में वे पत्रकार थे तब उसमें एक कॉलम हरिशंकर परसाई लिखते थे जिसके लिये अरूण पांडे हर पांचवें दिन परसाई जी के घर पहुंच जाते. उनकी व्यंग्य शैली के अरूण जी मुरीद हैं. उनकी रचनाओं को सिर्फ पढ़ा ही नहीं बल्कि नाटकों में गुना भी. समाज और व्यवस्था के प्रति परसाई जी की सूक्ष्म-पारखी निगाहों से बहुत कुछ सीखा और सहेजा. परसाईजी की रचनाओं पर आधारित अरूण पांडे द्वारा निर्देशित “निठल्ले की डायरी” बहुचर्चित, बहुमंचित और बहुप्रशंसित नाटक है. अपने आपकी और अपने काम की लगातार विवेचना-विश्लेषण करने की समृद्ध परंपरा को ये आगे बढ़ा रहे हैं. उनके इस गुण के लिये यहां थोड़ा पीछे लौटते हुए अलखनंदन के निर्देशन में ’डरा हुआ आदमी’ में बतौर अभिनेता की चर्चा अपेक्षित है. इसमें डरे हुए आदमी की भूमिका निभाते हुए इनकी ईमानदार कोशिश और अलखनंदन जी की सजग निर्देशकीय निगाहों तले जो कायाकल्प हुआ वो बरक़रार है. अलखनंदन जी ने उन्हें साहित्य, समाज और व्यक्ति के स्याह और सफेद पक्षों से परिचित कराया वहीं राष्ट्रीय फलक में ’विवेचना’ की पहचान बनाने में भी उनका सहयोग अमूल्य है.
ये सच है कि कला पहले स्वयं से संवाद करना सिखाती है. आत्मसंवाद की उत्कृष्ठता पर ही दूसरों से संवाद का उत्कर्ष दिखता है. अपने आप को समझना, अंतर्विरोधों और संघर्षों को परत दर परत खोल स्पष्ट समझ बनाना आसान काम नहीं है. जब इस सीढ़ी की ज़रूरत कलाकार को समझ आ जाती है तब वह अपनी प्रश्नाकुलता और जिज्ञासा को हल कर पाता है और तब उसके काम में गहराई महसूस होती है.
बरसों के पूर्वाभ्यास और सान्निध्य से उपजा धैर्य और प्रतिबद्धता का नाद गूंजता महसूस होता है अरूण पांडे में. इसके अलावे उनमें एक विशिष्ट गुण है ऑब्ज़र्वेशन का. बचपन से किशोरावस्था तक देखा-सुना बनारस आज भी उनकी रगों में दौड़ता है. उनके नाटकों की ख़ासियत है कि उनके किसी न किसी गीत को हर दर्शक गुनगुनाते हुए ही वापिस होगा, किसी न किसी डायलॉग के पंच पर उन्हें वाहवाही देते हुए ही घर लौटेगा. क्या किसी निर्देशक के लिये इससे बड़ा उपहार कोई और हो सकता है?
अरूण पांडे “थियेटर ही जीवन है’’ इस मंत्र को सिद्ध करने में ही स्वयं की सार्थकता समझते हैं. इसीलिये उनके निर्देशित नाटक जहां लोक की भव्यता तक सफर तय कराते हैं वहीं कुछ बेचैन करते सवाल भी हमारे ज़ेहन में छोड़ जाते हैं. जन सरोकारों से जुड़ने पर ही किसी काम की लोगों के बीच पहचान संभव है. इनका मानना है कि रंगशाला हमारे लिये मनोरंजन का साधन तो है ही किंतु यह एक पाठशाला भी है. नाटकों या नाटकीय क्रियाकलापों के बीच जीवन के कई अनसुलझे प्रश्नों का समाधान हमें रंगशाला से ही मिलता है. जब हम किसी निर्देशक का अच्छा काम देखते हैं तो एक जिज्ञासा होती है कि आखिर वो कौन-सा परिवेश, शिक्षा, सामाजिक माहौल और लोग उनसे जुड़े हैं जिसकी बदौलत यह शख्सियत बनी. अरूण पांडे को बनाने में ब.व. कारंत, अलखनंदन, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन और राजेन्द्र दानी का बहुत योगदान है. इनके अलावा बंशी कौल के साथ ने भी बहुत कुछ सिखाया.
अब चर्चा उनके उस पड़ाव की जिस पर बात करने से उनके कुछ ख़ास गुणों पर ध्यान बरबस ही जाता है. उनके थियेटर के कुल जमा सफर का यह एक महत्वपूर्ण दौर रहा और हिन्दी रंगजगत के लिये मील का पत्थर. बुंदेलखंड अंचल के ’लोक कवि ईसुरी’, जिनकी ८०० फागें और उनसे जुड़ी बातें किसी किताब में संकलित नहीं, को आज भी ग्रामीण अंचल में गाया-सुना जाता है. हालांकि बाद में मैत्रेयी पुष्पा का ’कहे ईसुरी फाग’ एक उपन्यास आया पर उससे पहले ईसुरी पर अरूण पांडे का काम ’लोक’ को लोगों के समक्ष लाने की रूचि को बताता है. अरूण पांडे ने बुंदेलखंड के ’ईसुरी’ से जो यह काम शुरु किया वो अब तक जारी है. ’ईसुरी’ जैसे जनकवि के बारे में जानकारी न होना हर संवेदनशील व्यक्ति के लिये पीड़ादायक है. लगभग १५० वर्षों से स्मरण के भरोसे और वाचिक परंपरा द्वारा समाज में इनकी रचनायें प्रचलित हैं जो ईसुरी की रचनाशक्ति का परिचय देती है.
’ईसुरी’ के लोकगायन, लोकनृत्य या लोकनाट्य क्षेत्र के ऋण से उबरने का एक प्रयास अरूण पांडे का भी है. उनकी समस्त रचनाओं से अरूण जी ने ५० चौकडिया फागों को छांटकर उनके जीवन को पिरोते एक नाटक तैयार किया. यह प्रोजेक्ट ’संगीत नाटक अकादमी’ द्वारा स्वीकृत हुआ. ईसुरी से संबंधित जानकारी एकत्र करने में इन्हें लगभग २ वर्ष लगे. ९ महीने कसकर रिहर्सल की. इस नाटक की तमाम कॉस्ट्यूम और अन्य साजो-सामान उन्होंने सभी के साथ मिलकर तैयार किया. इसके प्रदर्शन और तैयारियों ने जहां अरूण पांडे को ऊर्जा-उत्साह से भरा वहीं कलाजगत ने भी इस प्रस्तुति का दिल खोल कर स्वागत किया.
इसके लिये टाइम्स आफ इंडिया ने लिखा-
’’हबीब तनवीर के आगरा बाज़ार के बाद ये है हिंदुस्तान का थियेटर. इसमें सब कुछ भारतीय है हिंदुस्तानी है. यह किसी से प्रभावित नहीं है.”
उनकी ख़ास बात यह है कि उन्हें अपने काम की रंजकता का ज्ञान है. अपने काम में मनोरंजन, कला और कथ्य के सम्मिश्रण को लेकर वो सचेत हैं. रंगमंच के निर्देशक के लिये सिर्फ इतना ही आवश्यक नहीं होता बल्कि आज के समय में जब रंगकर्म कठिन से कठिनतर होता जा रहा है वे इस के प्रति लंबे समय से सजग हैं.
इसकी बानगी नाट्य समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी के इस कथन में अभिव्यक्त होती है- ’जितना नादिरा बब्बर, रमेश तलवार १ दिन की रिहर्सल का किराया देते हैं इतने में अरूण पांडे का एक प्रोडक्शन तैयार हो जाता है.’
रिहर्सल और प्रदर्शन की जगह को लेकर क्या छोटे शहर क्या बड़े शहर सभी जगह रंगकर्मियों को पापड़ बेलने पड़ते हैं पर क्राफ्ट और प्रॉपर्टी के संबंध में यह बात अरूण पांडे पर सौ फीसदी खरी बैठती है. इन सब के उल्लेख करने की वजह सिर्फ यह है कि अरूण पांडे में थियेटर के लिये अदम्य धैर्य है जो उनके काम में बोलता-गाता दिखता है. यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि अब भी अपने सभी प्रोडक्शन के लिये वे स्वयं ही कास्ट्यूम-प्रॉपर्टी बनाते है. जबलपुर में उपस्थित कलाकारों और लोक-कलाकारों का वो समय-समय पर सहयोग लेते हैं और सीखने की प्रक्रिया जारी रखे हैं. कहीं बाहर कार्यशाला लेने भी जाते हैं तो वहां के रंगकर्मियों को हमेशा सीखने-सिखाने और बनाने के लिये प्रेरित करते हैं.
रंग जगत की प्राथमिक ज़रूरत है नाट्यालेख. जिसके आधार पर रंगकर्मी अपने नवोन्मेष प्रयोग द्वारा बातों को संप्रेषित करते हैं. किसी प्रोडक्शन में रंगकर्मियों की प्राथमिकता को परिपूर्ण करती स्क्रिप्ट की आवश्यकता आरंभिक पर महत्वपूर्ण चरण है. हिन्दी रंगजगत में नये नाटकों की कमी का रोना रंगकर्मी रोते हैं पर हमारे साहित्यजगत की रचनाओं के प्रति अपनी रंगकल्पना भरने से ज्यादातर लोग कतराते हैं. वैसे हाल के कुछ वर्षों में इस तरह के अभ्यास और प्रयास में तेज़ी आयी है. इस तरह के प्रयास में ’विवेचना रंगमंडल’ का योगदान बहुमूल्य है. इसी सफ़र में उन्होंने मुक्तिबोध, परसाई, काशीनाथ सिंह, विजयदान देथा, अमृतराय, ज्ञानरंजन की रचनाओं के रूपांतरण कर लोगों को इस दिशा में काम करने की प्रेरणा दी है. कलायात्रा की कोई मंज़िल नहीं होती वरन अनेक पड़ाव होते हैं जिनपे पहुंच कलाकार आगे की यात्रा के रास्ते पहचानता है. एक अभिनेता के रूप में स्थापित होने के बाद अरूण पांडे ने धीरे-धीरे बतौर निर्देशक कदम बढ़ाये.
एक तरफ सुपरिचित स्क्रिप्ट्स ’कोर्टमार्शल’, ’हानूश’, ’डरा हुआ आदमी’, ’जुलूस’, ’कर्पूर मंजरी’, ’रसगंधर्व’, ’थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ’पैसा बोलता है’, ’लोककथा’, ’दूर देश की कथा’ जैसे कई नाटक निर्देशित किये वहीं मुक्तिबोध, भगवत रावत, उदय प्रकाश, सोमदत्त, गुलज़ार, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्रपति, अल्लामा इक़बाल की कविताओं के मंचन कर रंगजगत को अनुपम सौगातें दीं.
कविताओं को संयोजित कर उसमें आंगिक, वाचिक अभिनय के साथ गायन, वादन और नृत्य का समायोजित समावेश किया. इससे प्रस्तुतिकरण की सुंदरता तो बढ़ी ही ये हमारे कवियों के प्रति एक ईमानदार संस्कृतिकर्मी का ऐसा प्रयास है जिसके माध्यम से सामान्य जन तक कविताओं की पहुंच हुई. कविताओं के मंचन का इतिहास बहुत पुराना नहीं है इसी तरह काव्य-नाटकों की संख्या भी उंगलियों पर गिने जाने भर की है. नाटकों का समीक्षा-शास्त्र तो विकसित हो गया है किंतु काव्य मंचन का समीक्षा-शास्त्र अभी भी विकसित नहीं हुआ है सो इतनी काव्य श्रृंखला के नाटकों के मंचन के बाद भी उस पर अपेक्षित चर्चा नहीं हुई है.
अरूण पांडे द्वारा मुक्तिबोध की कविताओं पर कैंद्रित ’तुम निर्भय ज्यों सूर्य गगन पर’ एक ऐसी प्रस्तुति है जिससे विवेचना रंगमंडल ने कविताओं के मंचन का सिलसिला शुरु किया. इसमें मुक्तिबोध के काव्य को दृश्यों में बांध कर उनमें बारी-बारी से जीवन के तीन क्षणों को पिरो कर इसकी संरचना की गई है जो अद्भुत है. ऐसी प्रस्तुतियां और रचनायें बगैर किसी रचनात्मक दबाव के संभव नहीं है और यह रचनात्मक दबाव अरूण पांडे को सदैव सकारात्मक दिशा की ओर लिये जा रहा है.
फ़िलहाल अरूण पांडे अपनी टीम के साथ ’घासीराम कोतवाल’ की तैयारी में व्यस्त हैं. इतने बरसों से कई नाटक करने के बाद भी हर नये नाटक की तैयारी के प्रति उनका जोश और उत्साह देखने लायक होता है और इसीसे उनके सहकर्मियों को भी ऊर्जा मिलती है. आज जब बाज़ार में हर तरह का बना-बनाया सामान उपलब्ध है तब भी वे अपने हाथ के बने साजो-सामान को इस्तेमाल कर रहे हैं. जहाँ एक तरफ़ परिवार के अन्य सदस्य उनके पुत्र की शादी की तैयारियों के लिये चिंतित हैं अरुण पांडे अपने नये नाटक की अन्य तैयारियों के साथ पगड़ियां बनाने में व्यस्त हैं और अब उसका ढांचा उनके कमरे में कपड़े और गोटे लगने की प्रतीक्षा में है. ऐसे लोग ही हमारे समाज में इस हुनर को ज़िंदा रखे हुए हैं और तभी हम आज भी नाटक देखकर रोमांचित होते हैं क्योंकि वहां यथार्थ के साथ कल्पनाशीलता का अदभुत मेल दिखता है, सहजता दिखती है कृत्रिमता नहीं. परसाई के इस चेले को हमारा सलाम!!!