‘सितारे ज़मीन पर’ ‘मकड़ी’ के जाल में फंसे बच्चे
विशाल भारद्वाज की फिल्म मकड़ी पुरानी ज़रूर है पर हर दौर के बच्चों के लिए ज़रूरी मूवी है. विज्ञान और तकनीक के दौर में भी भूत-प्रेत, चुड़ैल और डायन के प्रति अंधविश्वास व्याप्त है. अभी हाल में (६-७ जुलाई ) बिहार के पूर्णिया में डायन तीन स्त्रियों और २ पुरुषों को ज़िंदा जलाकर मार दिया गया. ६० घर वाले टोले में अब सिर्फ मृतक के परिवार के परिजन बचे हैं और टोले के बाकी लोग फरार हैं. इसकी वजह है की पूरे टोले पर ही पांच लोगों को मारने और जलाने को लेकर एफ आई आर दर्ज़ हुई है. इसमें कितनी घटनाएं दर्ज़ ही नहीं होती और हम तक पहुँच ही नहीं पाती ,भले ही हम सूचना क्रान्ति का दावा करें. इसमें यह ज़रूर जोड़ा जा सकता है कि मोबाइल के जरिए अन्धविश्वावस फैलाने वालों के हाथ और मज़बूत हुए हैं और वे बहुत सक्रियता से इसे इस्तेमाल कर रहे हैं. बहरहाल फ़िल्म पर लौटते हैं.
९ जुलाई से लगातार बारिश की वजह से छुट्टी दी गई और १० जुलाई को एक-एक करके बच्चे आए और तब फिल्म देखने का प्रस्ताव आया. नम्रता ने मकड़ी सुझाया तो फिर बिना देर किए फिल्म लगाईं और बच्चों ने मज़े लेकर फिल्म देखी. इस फिल्म पर बच्चों की राय ज़ाहिर तौर पर लिखूंगी पर उससे पहले कुछ अपनी बातें।

बच्चों के साथ पढ़ते-सीखते हुए कई बार लगता है कि बच्चों के लायक फिल्में कम बन रही हैं जबकि बच्चों से संवाद का यह ऐसा सटीक माध्यम है जिसमें बच्चे खुशी-खुशी रमते हैं और दिल लगाकर संवाद करते हैं। अपने बचपन का याद करो तो याद आ है कि हम भाईयों-बहन को महीने में एक फिल्म देखने का अवसर मिलता था। पिता पहले देखकर आते थे कि फिल्म हमारे लायक है या नहीं और उसके बाद हम भाई-बहन को सिनेमा हॉल में छोड़कर आते थे। अक्सर हम लोग एंट्री गेट में शो खत्म होने से पहले पहुँच जाते थे तो फिल्म का अंत पहले ही देख लेते थे। फिल्म के दौरान पिताजी द्वारा प्री बुक गरमा-गरम समोसा या आलूचॉप हमारी सीट तक पहुँच जाता। जिस ज़माने में हम लोगों ने हॉल में फिल्में देखी हैं उस समय टेलीविज़न का ज़माना नहीं था इसलिए फिल्मों के प्रति एक अलग तरह का उत्साह होता था। उस दौर में हर वर्ग के लोग रिक्शावाले, सब्ज़ी वाले यानि दैनिक मजदूरी करने वाले लोग भी मूवी हॉल तक पहुंचते थे जबकि आज मनोरंजन के लिए टॉकीज़ का अस्तित्व मल्टीप्लेक्स के बड़े सिनेमागृहो ने ले लिया है और जिस तरह से बाज़ार ने अपना विकराल रूप धारण किया है उसमें किसी दैनिक मजदूरी करने वाले के लिए मनोरंजन का अवकाश मिलना दूर की कौड़ी है , असंभव है।
याद है जब १९९६ में मीरा नायर निर्देशित ‘फायर’ मूवी आई थी जो कि समलैंगिक और लेस्बियन रिश्तों पर बनीं कहानी पर बनी थी . इसके लिए जब रायगढ़ की गोपी टॉकीज़ में टिकट खिड़की में टिकट लेने हम ४ लड़कियां पहुँची तो टिकट देने वाले ने झांककर तुरंत अंदर बुलाया और उस अधेड़ आदमी ने पूछा कि- पता है न फ़िल्म में कैसे दृश्य हैं ? तो उन्हें कहा हमें पता आप टिकट दीजिये तो भी उस व्यक्ति ने यह कहा कि बालकनी की टिकट नहीं लीजिये आप लोग बॉक्स की टिकट लीजिये। जहां तक याद है उन्होंने बालकनी की दर में ही हमें बॉक्स की टिकट दी . इस किस्से में और फिल्म में जेंडर का किस्सा किस महीनता से जुड़ा है आज यह लिखते हुए लग रहा है कि छोटी जगह हो या बड़ी जगह, सभी जगहों में संवाद करने , निर्णय लेने की समझदारी विकसित करने की बजाय रोकटोक और नियंत्रण को ज़्यादा कारगर समझा जाता है जिसकी वजह से बच्चे , किशोर , युवा चोरी – छिपे आगे बढ़ते हैं।
सक्ती में जब रहती थी जो उस समय तहसील था उस समय वहां तीन टॉकीज़ थी और हर टॉकीज़ वाले अपनी फिल्म के शो का परचा – प्रसार रिक्शे में भोंपू लगवाकर करते थे। हम लोगों ने तो लाइव अनाउंसमेट भी सुना है. सक्ती में फिल्म के प्रचार – प्रसार के लिए घोषणा होती थी ” फलां टॉकीज़ में रिक्शावाले भाइयों की ख़ास पसंद, ख़ास मांग पर मिठुन दा की फलां फिल्म का पांच शो चल रहा है। उस समय इस घोषणा को सुनकर अनायास हंसी आती थी पर आज सोचने पर महसूस हो रहा है कि किस तरह से समाज की सामजिकी , आर्थिकी में सूक्ष्मता से बड़ा बदलाव हुआ है और जिसका प्रभाव हमारे पूरे समाज पर पड़ा है। दैनिक मजदूरी करने वाले वर्ग के हिस्से अभाव का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है और हमारे देखने के नज़रिये में भी बदलाव परिलक्षित हो रहा है। आज फिल्म के माध्यम से स्वस्थ मनोरंजन के लिए घर में ही पैसे खर्च कीजिये या फिर ज़्यादा खर्च कर सिनेमा में जाकर फ़िल्में देखिए। जिस दौर में स्वस्थ मनोरंजन की फ़िल्में बन रहीं हैं वे इस वर्ग तो लम्बे समय बाद ही पहुँचती हैं।

अब वापिस लौटते हैं लिटिल इप्टा के बच्चों द्वारा २००२ को विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मकड़ी ‘ पर। नम्रता ,श्रवण, अभिषेक, आयुषी, देव,राहुल, अभिनव और सुजल ने देखी । जब फिल्म ख़त्म हुई तो बातचीत करनी चाही। अधीर श्रवण ने प्रस्ताव रखा कि दीदी फिल्म पर बात कल कर लेंगे । श्रवण को पूरे समय पसंद की बातें यानी खेलना, देखना या बाजा बजाने में रूचि है इससे इतर कुछ होने से वो बेचैन होता है। बहरहाल सभी बच्चों को यह फिल्म पसंद आई। अभिषेक को कल्लू अच्छा लगा। श्रवण ने बताया कि फिल्म में डायन थी उसने चुन्नी से कहा कि १०० साल से भूखी हैं उसे १०० मुर्गी चाहिए। उसे बच्चों और बड़ों से काम नहीं कराना चाहिए। मुन्नी को चुन्नी ने बचाया । देव ने बताया की चुन्नी बहादुर थी वो अपनी बहन के लिए किसी से भी लड़ सकती थी। कल्लू कसाई था। नम्रता ने बताया कि डायन या चुड़ैल,भूत – प्रेत नहीं होते हैं , अंध – विश्वास होता है। गाँव के सब लोग भी डरते थे पर जब मुग़ल -ए – आज़म का कुत्ता अलादीन उस उजड़े , खडहर इमारत से बाहर निकलता है तो यह पता चल जाता है कि किसी लालच के लिए चुड़ैल बन वह लोगों को डरा रही है। अभी भी यहाँ आसपास बच्चों में भूत – प्रेत, आत्मा शब्दों पर आपसी चर्चा होती है। जब पूछे कि किसने बताया तो पता चला कि इस शब्द और इस अंध – विश्वास से घर ही इन्हें परिचित कराता है। बचपन में दिलो – दिमाग में बैठा डर, अंध-विश्वास लंबा सफ़र करता है और इसी बहाने जिन्हें फायदा मिलना होता है वे लोगों की आँखों में धूल झोंकते रहते हैं। बहरहाल कोशिशों का कोई अंत नहीं और इसी कोशिश के तहत बच्चे अभी हल में मल्टीप्लेक्स में ‘सितारे ज़मीन पर ‘ फिल्म देखकर आये।

गूगल से साभार
गूगल से साभार

‘सितारे ज़मीन पर ‘ फिल्म का अनुभव शानदार रहा। साथी तरुण की पहल पर सामूहिक रूप से कुल ६८ लोगों ने जिसमें ६१ बच्चे और किशोर शामिल हुए। धातकीडीह गाँव के स्कूली बच्चे, मेधाविनी में पढ़ने वाली आदिवासी लड़कियां और लिटिल इप्टा के बच्चों ने साथ में फिल्म देखी । वर्षा और सुजल को इससे पहले एक बार फिल्म दिखाने ले गए थे पर बाकी सभी ११ बच्चे पहली बार बड़ी स्क्रीन में मूवी देखने गए। बच्चों को २८ जून को बस यह कहा कि कल तुम सबके लिए सरप्राइज़ है। बच्चे बहुत तरह के अंदाज़े लगाते रहे और उनकी बातें सुन मेरे मन में गुदगुदी सी मची रही पर अपने आप को रोके रखा। सुबह का शो था तो झमाझम बारिश में १२ बच्चों के साथ निकले और जब मॉल पहुंचे तब भी बच्चे सोचे घूमने आएं हैं। बड़ी लिफ्ट में जाने का उनका उत्साह और खुशी तो पोर – पोर से टपक रही थी। जब अंदर गए तब तो लाइट और साज – सज्जा की चमक – दमक से बच्चे चमकने लगे। फिर उन्हें बाकी बच्चों के आने का पता चला कि उन सबके साथ फिल्म देखेंगे । इस तरह के अनुभव को बच्चों के साथ अनुभव करना सार्थक लगता है। फिल्म समाप्त होने के बाद वे सभी ६८ लोग लिटिल इप्टा की लायब्रेरी देखने आए और खाना खाने के बाद फिल्म पर बातचीत का दौर शुरू हुआ। बोलने की झिझक बच्चों में महसूस हुई पर जब एक लड़की ने बोलना शुरू किया तो जज़्ब की हुई पूरी मूवी की कहानी ,चरित्र ,संगीत और अपने अनुभव से परिचित करा दिया । अगले दिन लिटिल इप्टा के बच्चों के साथ फिल्म देखने के अनुभव और फिल्म के बारे में बातचीत हुई। नाम वार छोटी उम्र से बड़ी उम्र की ओर बढ़ते उनके अनुभव दर्ज़ कर रही हूँ। सभी बच्चों ने पहली पंक्ति में कहा =-
हमें फिल्म बहुत अच्छी लगी। पॉपकॉर्न भी बहुत अच्छा लगा।


अभिनव – हरगोबिंद को अकेले नहीं खेलना चाहिए। गुड्डू अच्छा लगा क्योंकि वो जानवरों की देखरेख करता था। करीम को काम की वजह से मैच खेलने का मौक़ा नहीं लगा।
अभिषेक – गुड्डू को पानी से डरना नहीं चाहिए था। कोच को भी लिफ्ट से डरना नहीं चाहिए था। जो अपने बालों को रंग किया था वह जब कुछ अलग समझता था तो रुक जाता था तो उसको समझने से रोकना नहीं चाहिए था। ( रंगीन बालों वाला स किरदार था ‘लोटस ‘ )
राहुल – फिल्म अच्छी लगी। शर्मा जी की भाषा बाद में कोच समझने लगते हैं। करीम को उसका मालिक काम करा – करा के थका देता था, इतना काम नहीं करना चाहिए।
श्रवण – करीम को मैच में खेलना था और बास्केटबॉल खेलना था इसलिए वो काम से देर से आकर भी अकेले सीखता था। रंगीन बाल वाला लोटस अच्छा लगा। गुड्डू एक बार बहते – बहते बचा था इसलिए उसे पानी से डर लगता था। शर्मा जी अच्छे लगे।
सभी को शर्मा जी पसंद आए।


नम्रता – कोच लिफ्ट से डरते थे और गुड्डू पानी से। फिल्म देखकर यह समझ आया कि हम अपना डर खत्म कर सकते हैं। कोच को लगता था कि वे डाऊन सिंड्रोम, ऑटिस्टिक लोगों को कोचिंग नहीं दे पाएंगे पर जब समझ आया तो वो उन्हें बास्केटबाल सीखने के लिए तैयार हो गए। उनके साथ रहते – रहते वे शर्मा जी की बात भी समझने लगे। गोलू अच्छी लगी जो पहली बार कोच से मिलने पर ये बोलती है कि मुझे प्यार से मत बोलो मेरा बॉय फ्रेंड है। जब हम हॉल में घुसे थे तो बहुत घबराहट हो रही थी पर बाद में अच्छा लगा।
सुरभि – फिल्म अच्छी लगी। इसमें मुख्य कोच और उसके सहायक कोच के बीच ईगो था। हेड कोच अपने सहायक कोच को टिंगू पुकारता था जिससे उसे बुरा लगता था। गुलशन के पापा छोड़कर चले गए थे इसलिए वह पापा बनना नहीं चाहता था। इस फिल्म में एक छोटी सी बात गोलू समझाती है जब पूरी टीम मैच सम्पात होने के बाद मस्ती कर रहे थे कि हम लोग सेकण्ड आए और यह तो हर मैच में होता है। मैच के बाद दोनों टीम के बच्चों का डांस बहुत अच्छा लगा। इस फिल्म में जब आमिर खान और उसकी पार्टनर मिलकर करीम के लिए नाटक करते हैं और उसके मालिक को डराते हैं और पैसा लेते हैं वो भी अच्छा लगा की किस तरह से पैसा जुटाकर मैच के लिए वे लोग जाते हैं .
सुजल – फिल्म में सुनील जो कि सिक्योरिटी गार्ड रहता है उसे इस बात का भ्रम रहता है कि कहीं उसके सिर में कुछ गिर न जाए तो वो हमेशा हेलमेट पहनकर रहता है। फिल्म बास्केटबॉल पर आधारित है पर बॉल को फुटबॉल की तरह किक मारना और जब बास्केट में टच होती तो सिक्सर कहना , इससे लगता है कि वे तीनों गेम खेले होंगे और तीनों को मिलकर कुछ नया ही किये । वो कोच पहले से मान लेता है कि सब पागल हैं पर बाद में उसे समझ आता है कि हमारे नॉर्मल से दूसरे का नॉर्मल अलग हो सकता है। किसी के लिए पूर्वाग्रह नहीं बनाना चाहिए , राय नहीं बना लेना चाहिए। हेड कोच का नज़रिया अलग था। फिल्म का आख़िरी दृश्य इमोशनल था। किसी को भी अलग फील नहीं कराना चाहिए ।
वर्षा – फिल्म में लोटस की गर्ल फ्रेंड एक प्रॉस्टीट्यूट हैं। सामान्य तौर पर हम इन्हें शरीर बेचने वाली या शरीर का धंधा करने वाली जानते हैं पर इन स्पेशल बच्चों के लिए सब समान हैं। ये सभी को बराबरी की नज़र से देखते हैं। कोच गुलशन पहले पूर्वाग्रह से भरा होता है पर जब उसे पता चलता है कि इन परेशानियों के बीच भी सभी काम करके अपने पैरों पर खड़े हैं तो उसका माइंड सेट चेंज होता है। सबसे कनेक्ट करता है तो महसूस होता है कि ये खेल भी सकते हैं जबकि आते ही गुड फॉर नथिंग कहा था।
हेड कोच अस्सिटेंट कोच को जज करता है तो यहां भी उनका माइंड सेट यानी नज़रिया दिखता है। हरगोविंद का विश्वास कोच जीतता है तो वो टीम में खेलने के लिए तैयार होता है। हरगोबिंद पहले जब टीम में होता है तो उसके साथ कोच द्वारा किया अविश्वास उसे टीम में खेलने से , कोच से दूर कर देता है पर माँ के प्रेम और कोच गुलशन की वजह से वह फिर खेलने को तैयार होता है। नियमानुसार टीम हारती है पर सभी खिलाड़ी दूसरी टीम की खुशी में शामिल होते हैं जबकि कोच सिर पकड़ कर बैठ जाता है।
दिव्या – फिल्म में गुलमोहर और गुलशन दोनों को ही जीवन में धोखा मिलता है। गुड्डू और कोच को क्रमशः पानी और लिफ्ट से डर लगता है। जब कोच आता है और पहली बार सभी से मिलता है तो कहता है ‘गुड फॉर नथिंग’ पर बाद में एहसास होता है कि वे अपनी जगह में परफेक्ट हैं . हार जाने के बाद भी उनकी खुशी अच्छी लगी। कोच को उसके पिता छोड़कर जाते हैं तो वह पिता बनाने से ही डरता है जब पिता बनने की बात हुई तो छोड़कर अपनी माँ के पास आ जाता है।
