फिल्म

संवैधानिक अधिकारों से वंचित है टापू राजी

दुनिया को जानने का क्लेम करने वाले लोगों के लिए

सब कुछ जानने- समझने के पूर्वाग्रह से त्रस्त लोगों के लिए

और

संवेदनशील होने के जब-तब सबूत देने वाले लोगों को आईना दिखाती

स्वतंत्र गणतंत्र के दोहरे मापदंडों के सच को उजागर करती है डॉक्यूमेंट्री ‘टापू राजी ‘

उपरोक्त पंक्तियाँ जो मैंने लिखी और टापू राजी की ख़ासियत बताने की कोशिश की इससे ज़्यादा बेबाक होकर अपनी कहानी कही है टापू राजी ने।

सच कहूँ तो सच्चाई देखकर होश उड़ जाते हैं और महसूस होता है कि यह हमारी सोच से परे हमारे समय के सच को सामने ला रही है जिसके बारे में एक देश में रहते हुए भी हम अनजान हैं। टापू राजी वो फिल्म है जिसमें छोटा नागपुर पठार से आदिवासियों को अंडमान काम के लिए ले लाया गया और उनसे जी – तोड़ काम लेकर उन्हें निचोड़कर रख दिया। अमानवीय हालत में यात्रा करते वे १९१८ में अंडमान पहुंचे और वहाँ की स्थानीय ज़रूरतों के हिसाब से श्रम करके अपनी सेवाएं दीं पर उस मानवीय श्रम का मूल्य उन्हें यह मिला कि अब वे अपनी नागरिकता और पहचान के लिए जूझ रहे हैं पर सरकार कान बंद किए और आँख मूंदे हुए है। छत्तीसगढ़ , ओडिशा और बिहार के लोगों को रांची में इकट्ठा करके उन्हें अंडमान ले जाया गया इसलिए अंडमान में बसने वाले इन आदिवासियों को रांची वाला कहा जाता है।

टापू राजी डाक्यूमेंट्री से साभार

घने जंगल और भारी बारिश के बीच जानवरों से भी बदतर जीवन जीते हुए इन आदिवासियों की तकलीफ की कहानियां यह सवाल खड़े करती है कि सभ्यता के किस युग में पहुँच हम मनुष्य को मनुष्य समझेंगे। अंडमान के शुरुआती दौर को याद करते बुजुर्ग हुए हराईक बड़ाईक (मयाबान्दार) ,कल्याण (गनादबाला) , सांगी गुड़िया, कल्याण कुजूर,पॉलीकार्प लकड़ा, पीटर खलको,जुएल लकड़ा,फूलमनी कुजूर,सरिता केरकेट्टा, सुनील एक्का, डोमनिका लकड़ा,सिल्वेस्टर भेंगरा,इग्नेश एक्का,सुशीला खेस,आर कालीनाथन,स्मिता बड़ाइक,मनोजीत बड़ाईक,अन्ना मिंज़,फरमा एक्का और ढेर सारे लोग जो अपनी जड़ों से विस्थापित होकर अंडमान पहुंचे वहाँ अपने देश में ही एक ऐसे विस्थापन का दंश झेल रहे हैं जिसकी काली छाया दिन ब दिन घनी होती जा रही है।

टापू राजी से साभार

शुरुआती दौर में घनघोर वर्षा में काम करना, बगैर छतरी भीगते हुए मेहनत करना, बड़ी – बड़ी लकड़ियों को जहाज़ में लादकर भेजना, ७ दिन बिना छुट्टी काम करना, एक छोटे से घेरे में कभी २० तो कभी ३० और कभी ५० आदमी रहते जहां दीवार के नाम पर बांस की चटाई होती, जोंक और अन्य कीड़े – मकोड़ो से भरी ज़मीन के पेड़ों काटते हुए ज़मीन तैयार की। काम के दौरान और बाद में भी खाने के लिए कुछ भी नहीं तो जड़-कांदा और केले उबालकर खाते हुए जीवन गुज़ारना, फिसलन भरी ज़मीन में रोड तैयार करना , भोर तीन बजे से उठकर १२ घंटे के लिए काम पर निकलना और डेढ़ रुपये मजदूरी में काम करना और उनमें से कइयों की मृत्यु प्राकृतिक वजहों से जैसे पेड़ में दबकर,हाथी और मगरमच्छ द्वारा हुई जिसका कोई हिसाब नहीं।

मनुष्य के बेहिसाब श्रम का मोल हम नहीं समझे और आज के दौर में भी हम नहीं समझें हैं इसका खुला-बेबाक दस्तावेज़ है ‘टापू राजी ‘

टापू राजी डाक्यूमेंट्री से साभार

अंडमान के अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले विस्थापित श्रमिकों से बातचीत करते हुए इस डाक्यूमेंट्री में पता चलता है कि वे मिलजुल कर साथ में रह रहे हैं, तमाम तकलीफों के बाद वे अब समझ चुके हैं कि व्यवस्था ने, सरकार ने उन्हें ठगा है पर आदिवासी दर्शन को जीते हुए वे यहां अपनी परंपरा से जीवन गुज़ार रहे हैं। उनके पास मांदर नहीं है तो डी जे के साथ नृत्य से ख़ुद के साथ सामुदायिकता को ज़िंदा रखे हुए हैं। बांग्ला , ओड़िया समुदाय के लोग तो अपनी भाषा को ज़िंदा रख पाए हैं पर आदिवासी समुदाय में अब आने वाली पीढ़ियां अब हिंदी ही बोल रही हैं। लोगों की बातचीत से पता चलता है कि यहां कई प्रेम विवाह की जोड़ियां मौजूद हैं। एक आदिवासी स्त्री के दर्द को हम महासू कर सकते हैं जब उसने कहा कि यहाँ पीपल,बरगद और जामुन के पेड़ नहीं हैं और हम उन्हें याद करते हैं।

टापू राजी डाक्यूमेंट्री से साभार

१९१८ से १९५४ के बीच में कैथोलिक लेबर ब्यूरो करारबद्ध श्रम के लिए लोगों को मजदूरी के लिए भेजा जिसे फादर चालान भी कहा जाता है। चालान डिपो १९५५ से १९७० काम किया और बिना लाइसेंस के अंडमान भेजा गया जिससे सरदार चालान कहा जाता था। १९२३ में मोपला,भातु, कारेन समुदाय के लोग भी आकर यहां बसे। १९४२ से पहले बसे लोगों को प्री सेटलमेंट के तहत सभी सुविधाएं दी गई पर उसकी संख्या भी सब तक नहीं पहुँची।

बहरहाल टापू राजी डाक्यूमेंट्री पर टिप्पणी ही पर्याप्त नहीं होगी जब तक कि उसे देख नहीं लिया जाए। अखड़ा रांची की प्रस्तुति टापू राजी में निर्देशन और कैमरा बीजू टोप्पो का है, इस श्रमसाध्य काम की एडिटिंग की है रूपेश कुमार साहू ने। इसे बनाने के लिए विशेष सहयोग रांची स्थित ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट को जाता है। रामदयाल मुंडा ट्राइबल वेलफेयर रिसर्च इंस्टीट्यूट ने इसे प्रोड्यूस किया। हर डाक्यूमेंट्री की ख़ासियत में उसका विषय हुआ है पर उस विषय को बरतने की शैली ही किसी डाक्यूमेंट्री को ख़ास बनाती है और टापू राजी में उसके गीत-संगीत ने आदिवासियों की पहचान की और विस्थापन की पीड़ा को गहराई दी और ऐसी आवाज़ दी जिसमें लम्बे अरसे की पीड़ा फूट रही है, इसके लिए कोरडुला कुजूर,निर्मला एक्का,सुशील केरकेट्टा,अजय तिर्की,जेवियर कुजूर को सलाम जो इतने मर्मस्पर्शी गीत लिखे और गाए।

बतौर नागरिक दुनिया के हर हिस्से के दर्द और पीड़ा की आवाज़ को सुनें जाने,दर्ज़ किये जाने और उसके लिए लड़ने की ज़रुरत बनीं हुई है। हम बतौर दर्शक की हैसियत से यह ज़रूर कर सकते हैं कि अपनी-अपनी जगहों में सामूहिक रूप से देखने का सिलसिला बनाएं और बुनियादी हक़ के लिए खड़े समुदायों के साथ अपनी एकजुटता दिखाएं।

रांची से गए आदिवासियों की अब तीसरे – चौथी पीढ़ी रह रही है पर बतौर नागरिक अधिकारों से वंचित है। एक देश,एक भूगोल और एक संविधान के बावजूद अंडमान में बस गए इन आदिवासियों के अधिकारों के हनन पर सरकार चुप है, मीडिया चुप है। यह एक बड़ी विडम्बना है कि संविधान में अंडमान की छह जनजातियों को आदिवासी पहचान हासिल है और देश के दूसरे कोनों से बस गए इन आदिवासियों की पहचान कुछ नहीं। वे अपने मूल निवासी के अधिकार से वंचित है। स्थानीय निकायों और स्थानीय चुनावों में उनकी भागीदारी शून्य है सो उनकी बात को सरकार तक पहुंचाने का कोई जरिया भी नहीं। ४० वर्षो से इनके हक़ की लड़ाई लड़ने वाले भी निराश हैं क्योंकि विस्थापित आदिवासियों को उनकी पहचान का दर्ज़ा दिए जाने से निज़ाम को कोई फ़ायदा नहीं सिवाय इसके कि फिर देश में कहीं ज़रुरत पड़े तो शारीरिक श्रम के शोषण की नई दास्तान के लिए आजीविका के लिए मजबूर ये आदिवासी फिर अपनी ज़मीन से विस्थापित होंगे।

नोट – आप अगर इस डाक्यूमेंट्री को सामूहिक तौर पर देखना चाहते हों तो अखड़ा रांची से संपर्क करें – akhra.ranchi@gmail.com, 9470182560

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