घर से पार्क की कहानी
बच्चों के साथ दिन भर खेलिए वे थकते नहीं। खेलने से उनमें ऊर्जा का संचार होता है और उनकी सक्रियता देखते ही बनती है। कहा जाता है कि रचनात्मक लोगों में आइडिया की कमी नहीं होती पर कभी न कभी उसमें एक बिन्दु ऐसा आता है जब लगता है और नया क्या तो हम अपने आसपास में होने वाले काम, किताब और फिल्मों के माध्यम से कुछ नया ढूंढने, रचने की कोशिश करते हैं।उनसे दिलो-दिमाग को चार्ज करते, खाद-पानी देते हैं।चुनौती तो हर काम में होती है पर कई बार लगता है बच्चों के साथ लगातार काम करना एक अलग तरह की चुनौती होती है। भले ही हम उनके साथ २ – ३ घंटे ही उनके साथ रहें पर उनकी रुचि, जुड़ाव और मूड का भी ध्यान रखना पड़ता है।
बच्चे एक साथ आ रहे हैं क्योंकि मिलने के कॉमन स्पेस की खोज हर उम्र के लोगों को होती है और बच्चे इस मामले में अलग नहीं हैं। जब बच्चों से नियमित मुलाक़ात बाधित होती है तब भी वे मिलकर खेलते हैं, मौसमी फलों की खोज में इस गली उस गली घूमते हैं और अपनी प्लानिंग में पक्के होते हैं। छुट्टी के दिन वे बिना देर किए एक – दूसरे के साथ कितकित, पिट्ठूल खेलने में मगन हो जाते हैं। बड़ी ख़ासियत यह होती है कि हर बच्चे को दूसरे बच्चे के बारे में सब कुछ पता होता है कि किसने क्या खाया-नहीं खाया, ब्रश किया या नहीं, किसे डांट पडी या मार भी पड़ी सबको पता होता है। उनकी इस दुनिया को देखते हुए लगता है कि बचपन की ये बेफ़िक्री कैसे बरक़रार रखी जा सकती है क्योंकि जैसे ही बड़े होंगे, उनके आचार-व्यवहार और अभ्यास में अन्तर आएगा और ये दोस्तियां या तो पक्की हो जाएँगी या सिर्फ बचपन के किस्से-कहानियों तक सिमट कर रह जाएगी। हाँ यह उम्मीद ज़रूर कर सकते हैं कि किस्से – कहानियो, कविताओं , फिल्मों और संवाद का असर अंतस में गहरी काई-सा जम जाएगा जिसके बदौलत उनमें पलने वाले सपनों के संसार में बरक्कत होगी । बहरहाल बच्चों के किस्से में आते हैं जो मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते हैं।
बच्चों के लिए इम्प्रोवाइजेशन की जगह ‘ कहानी बनाकर नाटक बनाओ’ शब्द ज़्यादा सम्प्रेषित होता है। कोई एक दृश्य को अभिनीत करके बच्चे उसकी व्याख्या बड़ो जैसी करते हैं। इस वाक्य में कहीं भी अतिश्योक्ति नहीं है। वे बुनियादी सवाल से लेकर ऐसी टिप्पणी करेंगे कि कभी आश्चर्य भी होगा।
खेल खिलाने के क्रम में बच्चों का दो समूह बना और उनसे पूछा कि अपनी प्रिय जगह बताओ पर दोनों समूहों का जवाब अलग होना चाहिए – एक समूह ने अपना घर और आपका यानी इप्टा वाला घर कहा और दूसरे समूह ने दो – चार पल में सोचकर कहा पार्क। दोनों को इस विषय पर कहानी बना नाटक करने के लिए कहा। साहिल , श्रेयांश और मानवी मिलकर शोर मचा रहे थे तो गलती से मुंह से निकल गया कि जो अच्छे से करेगा वो अव्वल कहलायेगा । बस फिर क्या था सभी बच्चे आपस में बातचीत करके रिहर्सल कर अपनी प्रस्तुति पेश की हालांकि साहिल, मानवी और श्रेयांश इन प्रस्तुतियों से अलग खेलने में ही मगन रहे। प्रस्तुति के स्तर पर हम – आप बहुत कुछ कह सकते हैं पर जब दोनों टीम को एक -दूसरे की प्रस्तुतियों पर राय ज़ाहिर कहने कहा तो कोई भी बिन्दु अछूता नहीं रहा।
‘घर’ वाले नाटक की थीम में स्पष्ट रूप से जेंडर भेदभाव के दृश्य बच्चों ने प्रस्तुत किए। बच्चे महसूस करते हैं कि घर में बेटा – बेटी के बीच भेदभाव किया जाता है।
‘पार्क ‘ थीम की टीम ने स्वच्छता के साथ जागरूकता का सन्देश दिया इसमें पार्क की साफ-सफाई करने वाले झाड़ूकर्मी पार्क में आए बच्चों को सफाई का महत्व समझाते हैं जो महत्वपूर्ण है।
पार्क वाली प्रस्तुति में बच्चे अपनी एंट्री एक गीत के साथ करते है जिससे उनके उल्लास और आनंद का पता चलता है –
चलो चलो
चलो चलो चलो चलो
पार्क में चलो, चलो
दोस्त से मिलो , मिलो
झूला झूलो
मिल के झूला झूलो
दोनों समूह ने एक – दूसरे की प्रस्तुति पर टिप्पणी की जिसे साझा कर रही हूँ –
श्रवण ने कहा – बच्चे लोग घूमने जाते हैं और गन्दगी फैला देते हैं।
अभिषेक – चिप्स , कुरकुरे खाकर उसका पैकेट जहां – तहाँ नहीं फेंकना चाहिए। नाटक तो अच्छा लगा।
गुंजन -पार्क में दोस्त मिले , खेले और बाद में कचरा कर दिया । जब सफाईकर्मी ने बोला कि तुम लोग क्यों कचरा कर दिए तो सफाईकर्मी/झाड़ूकर्मी सुजल भैया ने बुलाकर समझाया कि कचरा नहीं फेंकना चाहिए ।

गुंजन में जिज्ञासा थी कि अभिनव सुजल भैया का और काव्या नम्रता दीदी की दोस्त बनें थे पर फिर पार्क में झाड़ू लगाने वाले कैसे बन गए? उसे बताया कि पहले नम्रता और सुजल बच्चों के लिए बेंच बनें और फिर झाड़ू लगाने वाले बनें।
जब पूछा कि इस नाटक में और क्या अच्छा हो सकता है तो गुंजन ने कहा कि उन्हें खेलना और दौड़ना चाहिए था जिससे अच्छा लगता।
सुरभि – मुझे इसमें अच्छा लगा कि झाड़ू वाले भैया आकर बच्चों को सफाई के बारे में बताते हैं और बच्चों को समझ में आता है। पार्क में बहुत सारे लोग कचरा फैलाते हैं ऐसा ही करते हैं। झाड़ू करने वाले बनें भैया सामान्य जीवन में तो ऐसा नहीं बताते कि तुम कचरा नहीं फैलाओ।

इन बातों के बाद बच्चों से पूछे कि क्या तुम लोग कोई झाड़ू लगाने वाले ,सफाई करने वाले के मना करने पर तुम लोग मान जाओगे कि गन्दगी नहीं करना है या ये काम नहीं करना है ? तो बिना किसी हिचक के सहजता से जवाब आया – नहीं। इसके बाद अगला सवाल था कि तुम लोगों में कौन-कौन बिना सोचे – समझे पैकेट,पोलीथिन,चिप्स-कुरकुरे का पैकेट फ़ेंक देते हो ? बच्चों ने सहजता से स्वीकारा कि हम फ़ेंक देते हैं सिवाय बड़े बच्चों के जिसमें सुजल, नम्रता और सुरभि शामिल थे। इस तरह की बातचीत का असर बहुत धीमे पड़ता है पर उम्मीद है कि ऐसे संवाद कहीं न कहीं सोचने की दिशा में ले जाते हैं कि धरती को बचाने की दिशा में हमारा योगदान किस तरह से जुड़ सकता है। अभिषेक ने बड़ी तत्परता से हामी भरी और कहा कि अब कचरा कब्बी बाहर नहीं फेंकना। बच्चों के ये मासूम संकल्प स्वयं के जीवन में की गई अनियमितताओं और असभ्य अभ्यास से बचाते हैं।
अब बात की ‘घर ‘ प्रस्तुति पर बच्चों ने –
काव्या – हमको लगा न कि दीदी और भैया (यानि मम्मी , पापा बनें ) अभिषेक को (बेटा) ही प्यार करते हैं गुंजन को नहीं। भाई – बहन खेलते हैं और मम्मी – पापा जब बहन को डांटते हैं तो बुरा लगा।
अभिनव – माता – पिता अपने बेटा को प्यार करते हैं बेटी को नहीं। बच्चे का खेलना देखकर अच्छा लगा।

सुजल – नाटक में दिखाया कि घर में जब बेटा – बेटी होते हैं और बड़े हो जाते हैं तो उन्हें अलग कर दिया जाता है। बेटे को बाहर जाने मिलता है पर बेटी को घर का काम कराया जाता है, बाहर जाने का अवसर काम मिलता है। इसमें दिखाया कि बेटे को बाज़ार लेकर गए और सामान खरीद कर दिए यानी बच्चों के साथ ग़ैर -बराबरी करते हैं जो कि बुरी बात है। बेटी को घर में क़ैद किया जाता है, सीमित कर दिया जाता है और लड़कों को पूरी आज़ादी है, ऐसा हमारे समाज में भी होता है।

नम्रता – नाटक में मम्मी-पापा बेटे को ज़्यादा प्यार दे रहे हैं और बेटी से बस काम करा रहे हैं। बेटी के साथ भेदभाव कर रहे हैं। जब घर में बेटा बोला भी नहीं कि मुझे कहीं ले चलो फिर भी मम्मी – पापा उसे बाज़ार लेकर गए। खाने के लिए बच्चों को बुलाया पर बेटी को खाना ही नहीं दिया और न ही बाज़ार लेकर गए। उन लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए। ये घर में भी होता है कि लड़कियों को अपनी तरह से खेलने का अधिकार नहीं होता, उन्हें बाहर भी जाने नहीं दिया जाता। हम लोग रात में कहीं काम से भी जाते हैं तो घर में इतनी पूछताछ करते हैं कि कहाँ गए थे , कहाँ नहीं और जब लड़के लोग जाते हैं तो उन लोगों से कुछ नहीं पूछा जाता। इस नाटक में भी वही है और यह कमी थी कि नाटक में जो दिखाना चाह रहे थे उसमें अभिनय करने वाले हम लोगों की तरफ पीठ दिखा रहे थे।

इस बातचीत के बाद उन्हें कहा कि इसमें अभी सिर्फ कुछ दृश्य आए तो इसे आगे बढ़ाकर करने की आवश्यकता है। ‘घर’ की प्रस्तुति वाले बच्चे गीत कैसे बनाएं यह सवाल किए तो मिलकर दो पंक्ति बनाए –
कहते हैं हम चलो घर की कहानी
मामी – पापा , भाई – बहन
और
दादा की कहानी।

मज़ेदार
शुक्रिया दीदी 🌹🌹