वो सुबह हमीं से आएगी
साहिर हमारे साथ अपनी रचनाओं के साथ हमेशा मौजूद रहेंगे पर उनको याद करना, उनके लिखे को बार-बार पढ़ना और गाना ज़रूरी है। वो शायर जिसने अपने जीवन में सच के लिए कभी समझौता नहीं किया। उनकी नज़्मों , ग़ज़लों और गीतों के फ़लसफ़े को समझकर जीने और अभ्यास करके आने वाली नस्लों तक पहुंचाना ही सही मायनों में आगे बढ़ना है। आज इसी क्रम में लिटिल इप्टा के बच्चों के साथ साहिर को जानने-समझने की तरफ एक और कदम बढ़ाया।
पिछले वर्ष इप्टा जमशेदपुर ने साहिर लुधियानवी पर ‘तरही मुशायरा’ का आयोजन किया था जिसमें शहर के जाने-माने शायरों ने शानदार ग़ज़लें सुनाई थी। इस मुशायरा के लिए साथी संजय सोलोमन ने सुझाव दिया था और अहमद बद्र साहब ने आगे बढ़ने के लिए रास्ता दिखाया। इस आयोजन में लिटिल इप्टा के बच्चों ने साहिर लुधियानवी का बच्चों के लिए लिखा गीत ‘ भारत के बच्चों ‘ पेश किया था।

पिछले वर्ष की याद इसलिए ज़रूरी है क्योंकि लिटिल इप्टा की भूमिका गीत तक सिमट गई थी। वे शायरों के कलाम सुनें पर उम्र के हिसाब से उन्हें समझना उनके लिए मुश्किल रहा और वे बस गीत प्रस्तुति के बाद मूक दर्शक ही रहे। इस बात के मद्देनज़र इस बार साहिर को याद किया जाना तय हुआ।
साहिर लुधियानवी को याद करने के लिए इस बार लगा कि बच्चों के साथ साहिर लुधियानवी के जीवन और उनके किस्सों पर ही बात की जाए , जिससे बच्चे कुछ समझ पाएं और उनके जीवन को जान पाएं। आज लिटिल इप्टा की वो पौध भी आई जिन्हें उनका नाम भी लेने में कठिनाई हो रही थी और कुछ किशोर बच्चे शामिल थे जो आसानी से बातों को समझने लगे हैं। यहां यह लिखते हुए खुशी हो रही है कि छोटे बच्चे शिद्दत से सुनने-समझने की कोशिश किए। बच्चों के साथ बात करना और उन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए जान-पहचान और धैर्य की ज़रुरत होती है इस बात को आज साथी संजय सोलोमन ने बखूबी निभाया, छोटे – छोटे वाक्यों के जरिये कोशिश की कि बच्चे आज साहिर की याद को अपने साथ लेकर जाएं। साथी संजय की बातों को संक्षिप्त में दर्ज़ कर रही हूँ –
साहिर लुधियानवी में जो ‘लुधियानवी’ लिखते थे वो उनके जन्म की जगह है। उनका असल नाम अब्दुल हई था। पिताजी बड़े ज़मींदार थे। ज़मींदार यानि बहुत पैसे वाला होता है जिसके पास गाँव में बहुत ज़मीन होती है जो सबको क़र्ज़ देता है और डराकर रखता है, साहिर के पिता ऐसे ही ज़मींदार थे। साहिर के पिता ने खूब सारी शादियां की थी पर सिर्फ एक बेटा साहिर ही हुआ। हमारे देश में बेटे को ही वंशज माना जाता है उन्हें ही इज़्ज़त मिलती है तो वे चाहते थे कि साहिर इसे आगे ले जाए पर साहिर के पिता अपनी पत्नियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे तो उनकी माँ ने पिता को छोड़ने का फैसला लिया। जब कोर्ट में साहिर से पूछा गया कि आपको किसके साथ रहना है तो साहिर ने जवाब दिया माँ के साथ रहेंगे। इस तरह साहिर बचपन से ही सही की तरफदारी करना सीख लिए थे।
बड़े होने पर वे शायरी करने लगे और अपना नाम बदल कर अब्दुल हई ‘साहिर’ रख लिए और बाद में अपने नाम में लुधियानवी जोड़ लिए। साहिर का अर्थ होता है ‘जादूगर ‘ कॉलेज में वे स्टूडेंट यूनियन से जुड़ गए और विद्यार्थियों के हक़ पर बात करने लगे और इस तरह से उनकी समझ और पुख़्ता हुई और वे ग़लत के ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाने लगे।
आवाज़ वही उठा सकता है जिसमें हिम्मत होती है और वो हिम्मत थी साहिर में।
इसी दौरान कॉलेज में एक बार अंग्रेज़ गवर्नर आने वाले थे और रानी की शान में गीत गाया जाना था जिसके लिए साहिर ने मना किया साथ ही अपनी शायरी सुनाने से भी नाम वापिस ले लिया और इस बात के लिए उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। इस घटना के बारे में साहिर को पता था पर वे अपने नुकसान को समझते हुए भी ग़लत बात के लिए आगे आए और खुलकर बोले।
२५ वर्ष की उम्र में अपनी शायरियों को किताब के रूप में प्रकाशित करवाए। उस किताब का नाम ‘ तल्ख़ियां ‘ इसके मायने कड़वाहट। दुनिया के कड़वे अनुभव जैसे गरीबी,अज्ञानता,ज़ुल्म को उन्होंने अपनी शायरी में लिखा और इसीलिये अपनी किताब का नाम दिया ‘तल्ख़ियां ‘
इसके बाद जब देश आज़ाद हुआ तो दो भाग में बंट गया। साहिर अपने पिता से अलग होने के बाद अपने मामा के घर लाहौर में रह रहे थे पर जब देश आज़ाद हुआ तो कुछ समय लाहौर में ही रहे, वहाँ वे पत्रिका निकालने लगे जिसमें नए देश के बारे में सच लिखने लगे तो सरकार दबाव डालने लगी कि ऐसा करने पर जेल में डाल दिया जाएगा। साहिर लुधियानवी इस दबाव में तो रह नहीं सकते थे तो वे पाकिस्तान छोड़कर हिन्दुस्तान आ गए।
बचपन से साहिर लुधियानवी का शौक था कि वे फिल्मों में गीत लिखें। उन्हें शोहरत की ख़्वाहिश थी। लौटकर दिल्ली में मज़ाज के साथ मिलकर मुंबई गए। मज़ाज तो कुछ दिनों के बाद मुंबई से वापिस लौट गए पर साहिर मुंबई में रहकर गीत लिखते रहे और बहुत बड़े गीतकार बनें। इसके बाद संजय ने जो कहा वो उम्मीद करती हूँ कि बच्चों के जेहन में कहीं दर्ज़ होगा –
जीवन में कुछ भी अचानक या सिखाने से नहीं आता। जब हम कहीं ग़लत देखते हैं तो वहाँ सही-ग़लत की पहचान होना चाहिए। साहिर लुधियानवी अपने बचपन में ही इस पहचान को समझ गए थे।
जब आप सब बड़े होंगे तो आपकी आवाज़ सुनीं जाएगी,जब आपकी आवाज़ सुनीं जाएगी तब आपको अपनी आवाज़ सुनाना भी होगा जैसे साहिर लुधियानवी ने किया। सही और ग़लत बात के लिए बहुत-सा ऐसा समय आएगा जब हमें सुख की चिंता नहीं करनी होगी, अपने फायदे को किनारे रखना होगा। साहिर को कॉलेज छोड़ना पड़ा पर वे झुके नहीं थे। लाहौर में दबाव पर आने पर,आवाज़ दबाने पर वे सब छोड़कर वापिस भारत आ गए।
साहिर लुधियानवी का सपना था गीत लिखना पर यहां भी वे अपने ज़मीर को किनारे नहीं किए बल्कि उसमें दुनिया की बेहतरी और उसे बदलने की बातें,ज़िन्दगी की सच्चाई दर्ज़ की। साहिर से हम सीख सकते हैं कि अपने सपनों को जीने के लिए हमें अपने विचारों को छोड़ना नहीं होता है। जैसे अभी हाल में जुबिन गर्ग जिनकी मौत हुई वे गाते हुए हमेशा अपनी बात रखे,अपने गीतों से ग़लत के ख़िलाफ़ गाते रहे। साहिर समाज में ग़लत को ग़लत कहने के साथ लडके – लड़कियों के भेदभाव को, पैसे वालो का गरीबों पर ज़ुल्म , कारखाने मालिक द्वारा मज़दूरों को सताया जाना भी लिख रहे थे इसे भी अपनी नज़्मों में सिर्फ लिखा ही नहीं बल्कि उसका उपाय भी उन्होंने दर्ज़ किया।
साहिर ने लिखा- वो सुबह कभी तो आएगी, इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा यानि बुराई,शोषण, असमानता ये सब कभी तो खत्म होगा। इसके ख़त्म होने का उपाय लिखते हुए साहिर कहते हैं वह सुबह हमीं से तब आएगी जब संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से,मिलों से निकलेंगे और अपने हक़ के लिए लड़ेंगे तब वह सुबह हमीं से आएगी।
हारने और हार मानने में फ़र्क होता है और यही बात हमेशा आप सबको याद रखना चाहिए कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत, साहिर की पूरी शायरी में यह लागू होता है। कभी भी निराश होकर नहीं बैठना चाहिए , हमेशा आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढना चाहिए।
साहिर लुधियानवी की बच्चों के लिए लिखे एक कविता पढ़कर सोलोमन ने अपनी बात को विराम दिया। इस कविया को सुनकर बच्चों के चेहरे खिल उठे –
बच्चों की सरकार
बड़ों का राज तो सदियों से है ज़माने में
कभी हुआ नहीं दुनिया में राज छोटों का
अगर हमें भी मिले इख़्तियार ऐ लोगो
तो हम दिखाएँ तुम्हें काम-काज छोटों का
मुल्क में बच्चों की गर सरकार हो
ज़िंदगी इक जश्न इक तेहवार हो
हुक्म दें ऐसे कैलन्डर के लिए
जिस में दो दिन बाद इक इतवार हो
सब को दें इस्कूल जैसा यूनिफार्म
एक सी हर पेंट हर शलवार हो
हॉस्टल ता’मीर हो सब के लिए
कोई भी इंसाँ न बे-घर-बार हो
राष्ट्र भाषा हम इशारों को बनाएँ
दक्खिन उत्तर में न फिर तकरार हो
हम मिनिस्टर हों तो वो सिस्टम बने
जिस में मुफ़्लिस हो न साहूकार हो
क़ौमी दौलत के ख़ज़ाने हों भरे
ख़ुद ही ले ले जिस को जो दरकार हो
ईद दीवाली सभी मिल कर मनाएँ
आदमी को आदमी से प्यार हो
मुल्क में बच्चों की गर सरकार हो।


आज साहिर की याद में लिटिल इप्टा के नन्हे और किशोर बच्चे शामिल हुए जिसमें बढ़ती उम्रानुसार नाम लिख रही हूँ – आयुषी,मानवी, साहिल, शानू , गणेश ,अभिषेक,काव्या ,गुंजन ,श्रवण , नम्रता , सुरभि और सुजल। ५ वर्ष से १५ वर्ष तक के बच्चे आज शामिल हुए। इनके साथ कॉमरेड शशि,तरुण,अंजना,मल्लिका (अभिषेक और आयुषी की दादी) ,अर्पिता शामिल रहे। कार्यक्रम के अगले पड़ाव में बच्चों ने साहिर के गीत ‘भारत के बच्चो ‘ गीत की प्रस्तुति की और सुजल , सुरभि , नम्रता , गणेश , अभिषेक और श्रवण ने साहिर लुधियानवी की नज़्म ‘तुलू ए इश्तिराकियत’ प्रस्तुत की। इस नज़्म को सुजल ने पढ़कर ख़ुद समझने की पहल की और बाकी बच्चों को समझाने के बाद प्रस्तुति की।
‘तुलू ए इश्तिराकियत’
जश्न बपा है कुटियाओं में ऊँचे ऐवाँ काँप रहे हैं
मज़दूरों के बिगड़े तेवर देख के सुल्ताँ काँप रहे हैं
जागे हैं इफ़्लास के मारे उठे हैं बे-बस दुखियारे
सीनों में तूफ़ाँ का तलातुम आँखों में बिजली के शरारे
चौक चौक पर गली गली में सुर्ख़ फरेरे लहराते हैं
मज़लूमों के बाग़ी लश्कर सैल-सिफ़त उमडे आते हैं
शाही दरबारों के दर से फ़ौजी पहरे ख़त्म हुए हैं
ज़ाती जागीरों के हक़ और मोहमल दा’वे ख़त्म हुए हैं
शोर मचा है बाज़ारों में टूट गए दर ज़िंदानों के
वापस माँग रही है दुनिया ग़सब-शुदा हक़ इंसानों के
रुसवा-बाज़ारी ख़ातूनें हक़्क़-ए-निसाई माँग रही हैं
सदियों की ख़ामोश ज़बानें सहर-ए-नवाई माँग रही हैं
रौंदी कुचली आवाज़ों के शोर से धरती गूँज उठी है
दुनिया के ईना-ए-नगर में हक़ की पहली गूँज उठी है
जम्अ’ हुए हैं चौराहों पर आ के भूके और गदागर
एक लपकती आँधी बन कर एक भबकता शो’ला हो कर
काँधों पर संगीन कुदालें होंटों पर बेबाक तराने
दहक़ानों के दिल निकले हैं अपनी बिगड़ी आप बनाने
आज पुरानी तदबीरों से आग के शो’ले थम न सकेंगे
उभरे जज़्बे दब न सकेंगे उखड़े परचम जम न सकेंगे
राज-महल के दरबानों से ये सरकश तूफ़ाँ न रुकेगा
चंद किराए के तिनकों से सैल-ए-बे-पायाँ न रुकेगा
काँप रहे हैं ज़ालिम सुल्ताँ टूट गए दिल जब्बारों के
भाग रहे हैं ज़िल्ल-ए-इलाही मुँह उतरे हैं ग़द्दारों के
एक नया सूरज चमका है एक अनोखी ज़ौ-बारी है
ख़त्म हुई अफ़राद की शाही अब जम्हूर की सालारी है


आख़िर में साहिर की एक बात कि कभी भी ग़लत का साथ नहीं देना चाहिए और सच की पैरवी करने के लिए आगे आना चाहिए। इस ‘चाहिए’ की हिम्मत जीने के लिए ही हमें साहिर को याद करना,पढ़ना और गाना ज़रूरी है।

प्रिय कवि, गीतकार साहिर को याद किए जाने भर से ही दिल में एक खुशी महसूस होती है। उनकी चीजें ढूंढ़ कर पढ़ती रही हूं, शुक्रिया और बधाई आप सबको।
शुक्रिया सुषमा जी!!