जान दराज़ की साइकिल में सैर
किसी किताब, कहानी या लेख का शीर्षक देखकर उत्सुकता बढ़ जाती है और लोग उसे पढ़ जाते हैं। यह जिज्ञासा ही हमें पढ़ने के लिए मजबूर करती है। यही अनुभव इस बार अप्रैल-मई , 2025 के साइकिल अंक की पत्रिका में प्रकाशित ‘जान दराज़ की साइकिल’ शीर्षक देखकर हुआ। बिना रुके सबसे पहले इसे बच्चों के साथ पढ़ा। अभी यह शीर्षक लिखते हुए एक मुस्कुराहट तैर रही है कि बच्चों के लिए लिखने वाले लेखक-लेखिकाओं ने किस तरह से बच्चों को इस दुनिया से परिचित कराने की ज़िम्मेदारी ली है। कई बार हम अपने आसपास के ज़रूरी लोगों से बच्चों का परिचय नहीं कराते और बड़े होने के बाद बच्चे सोचते हैं कि ‘अरे! इनके बारे में तो हमें काफी पहले जान लेना चाहिए था पर इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता क्योंकि हम बड़े उन्हें कई ज़रूरी बातों, ज्ञान और किताबों से वंचित रखते हैं और उन्हें उलझाए रखते हैं बस स्कूली ज्ञान और किताबों में।

बच्चों के बीच ज़रूरी, गंभीर बातों पर लिखना सबसे कठिन काम है। बच्चों के साहित्य से गुज़रते हम-आप बचपन के जादू की दहलीज़ पर पहुँच जाते हैं और बढ़ती उम्र के शिकवे-शिकायतों से लैस हमारी दुनिया के अँधेरे रौशन होते हैं। बच्चों के बिना दुनिया सूनी है पर यह भी सच है कि समाज में बच्चों के लिए पढ़ने-खेलने और मनोरंजन के साधनों पर की जाने वाली गंभीर और ज़रूरी समझी जाने वाली पहल और कोशिशें भी कम है। ज़्यादातर बच्चों के जीवन में अब स्कूल में खेले जाने वाला गेम पीरियड तक ही खेल का मैदान रह गया है क्योंकि पढ़ाई और ट्यूशन ने उनके समय पर ऐसा कब्ज़ा किया है कि वे बेसब्री से अपनी छुट्टियों का इंतज़ार करते हैं। जगह की कमी, असुरक्षा और प्रतियोगी माहौल में बच्चे का नैसर्गिक विकास अवरुद्ध हुआ है। हम उन्हें मशीनी तरीके से बड़ा करने की कवायद में लगे हैं। हम किसी भी तरह से बच्चों को खाली नहीं रहने देने, सोचने और कल्पना के आकाश में विचरने के अवकाश से मुक्त कर दिए हैं सो वे समय से पहले ऐसे अनुभवों से भर रहे हैं जिसकी उपस्थिति हमें बेचैन करती है। इन तमाम सवालों को दरकिनार करती, चुनौती देती बच्चों की पत्रिका है साइकिल जिसमें बच्चों को बच्चों की नज़र से दुनिया देखने की सलाहियत के साथ उन विषयों, लोगों के बारे में रोचकता के साथ लिखा जाता है जिसके बारे में हम सोच नहीं पाते कि ये बातें, लोगों के बारे में जानने की ज़रूरत बच्चों को भी है। साइकिल वो पत्रिका है जो बच्चों को जीवन जीने और देखने का सलीका सिखा रही है।
साइकिल के अप्रैल-मई , 2025 के अंक में जसिन्ता केरकेट्टा ने ‘लोगों का अर्थशास्त्री ‘ज्यां द्रेज़ को बच्चों से परिचित कराया। वो अर्थशास्त्री जो अपने बारे में कुछ भी लिखवाने से परहेज़ करता है और दिखावे की दुनिया से बाहर रहता है। मरांगबदी गाँव में सिन्दुआर टोली बस्ती का वासी होकर गरीबों की नज़र से अर्थशास्त्र समझने की कोशिश में जीवन जी रहे हैं। जसिन्ता ने इसमें उल्लेखित किया है कि ज्यां द्रेज़ से उनके जीवन को बच्चों के लिए साझा करने की बात हुई तो वे सहमत हुए। उनके रहन-सहन के साथ-साथ रांची, मोरहाबादी और सिन्दुआर टोली के नाम की कहानी चलकर हम तक आई। आदिवासियों में जगहों के नाम हमेशा किसी पक्षी, पेड़ या जन्तु के नाम पर होते हैं और बिना अर्थ के नाम कहीं नहीं होते यह भी पता चला।

ज्यां द्रेज़ इस कठिन नाम को उच्चारित नहीं किये जाने की वजह से एक अजनबी से उनको मिला नाम ‘जान दराज़’ जिसके मायने है ‘लम्बी उम्र’, अपने मायने में यह नाम खूब है और ज्यां द्रेज़ को प्यारा भी पर वे किसी से यह कह नहीं पाए। उनके जीवन में ज़रूरी चीज़ों में शामिल है उनकी साइकिल जिसे चलाते आप उन्हें रांची में देख सकते हैं। इस में एक वाक्य है कि उनकी साइकिल में लगी घंटी बत्ती का काम भी करती है। इस वाक्य का अर्थ जब बच्चों से पूछे तो समझ नहीं पाने के लिए वे सिर हिलाए तो उन्हें बताया कि अँधेरों में घंटी की आवाज़ प्रकाश/बत्ती का काम करती है। चमकती आँखों से इस किस्से को सुनते हुए वे ऐसा महसूस कर रहे थे कि जैसे ज्यां द्रेज़ को अपने सामने देख रहे हों। जसिंता ने इस तरह से उनके दैनिक जीवन का चित्र खींचा है कि बच्चे उनके व्यक्तित्व से दोस्ती कर लें। जब वे साइकिल बनवाते हुए मरम्मत करने वाले मिस्त्री को बीस की जगह सौ रुपए देना चाहते हैं पर उसके इनकार से उनकी उदासी और यह कहना कि मेहनती लोगों का श्रम मूल्य कम और मेहनत करने वाले लोगों के जीवन के ऊपर आइडिया बनाने वालों की संपन्नता की वजह से समाज में ग़ैर बराबरी है यह बात उनके कोमल मन में अंकित हुई होगी और बच्चे इसके मायने भी समझ पाए होंगे।
सबसे ज़्यादा बच्चों को उनके कमरे में रहने वाले चूहे का किस्सा पसंद आया । पिजरे में फंसे चूहे को जान दराज़ द्वारा स्कूल के पीछे छोड़ना पर चूहों को कब स्कूल जाना पसंद करते हैं? इस वाक्य पर उनकी सहज प्रतिक्रिया आनी ही थी क्योंकि बच्चों को भी बंधी-बंधाई रूटीन में स्कूल जाना पसंद थोड़े ही है। उनके स्कूल तो हम बड़े अपनी सोच से बनाते हैं जिसमें बच्चों के हिस्से उनका स्पेस नहीं आता। बहरहाल जान दराज़ के बारे में पढ़कर बच्चे खुश हुए कि हमसे बस दो घंटे की दूरी में रांची के मरांगबदी की सिन्दुआर टोली में वे रहते हैं, कभी न कभी तो मुलाकात होगी। जब उन्हें बताया कि सुजल के साथ ज्यां द्रेज़ से एक छोटी मुलाकात हुई है जब कुछ महीने पहले 30 मार्च, 2025 को भगत सिंह की बहन बीबी अमर कौर के बेटे यानि भगत सिंह के भांजे जमशेदपुर आए थे तो जान दराज़ भी आए थे तो बच्चे आश्चर्य मिश्रित भाव से ऐसे देखे जैसे कि उन्होंने कुछ ख़ास बात जान ली हो और उस दिन कुछ मिस कर दिया हो।

लिटिल इप्टा में हम मिलकर पढ़ने का अभ्यास नियमित करते हैं, इसमें मिलकर एक छोटी कविता हो, कहानी हो या कुछ और पर पढ़ने के अभ्यास को बनाएं रखने की कोशिश करते हैं। बहुत ज़्यादा तो पढ़ना नहीं होता पर सामूहिक पठन और उस पर बातचीत करने से बच्चों की समझ पढ़ने के क्रम में बनती है और उन्हें समझने का मौका लगता है। कौन से शब्द और अर्थ उनके लिए नया है वे सीखते हैं साथ ही उनसे कुछ नया जानने का सिलसिला बनता है। एकतारा की तीन पत्रिकाएं साइकिल, प्लूटो और कॉमिकसेन्स लायब्रेरी में आती है इसके अलावा कोशिश रहती है कि धीरे-धीरे जब कोई किताब दिखी या मिलीं तो ले ली जाती है। यह लिखते हुए यह भी लग रहा है कि अगर बच्चे नियमित पत्रिकाएं ही पढ़ते रहें और उन पर अपनी समझ स्पष्ट करते चलें तो मोबाइल,टी वी जैसे गैजेट का असर खत्म नहीं तो कम किया जा सकता है पर उनका विवेक जाग सकता है। हालांकि यह भी सच्चाई है कि सूचना के महासागर में ये कोशिश बूंद भर भी नहीं है क्योंकि बस कुछ घंटों के लिए ये बच्चे इप्टा की लायब्रेरी में आते हैं। इसमें भी किसी दिन इन बच्चों का आग्रह रहता है कि आज कोई मूवी देखेंगे या आज लूडो खेलना हैं या आज ड्रॉइंग का मन है पर इसमें भी हर गतिविधि में कोशिश रहती है कि संवाद बनें उनकी समझ से अपना दुनिया देखने का नज़रिया बनें।
बहुत महत्वपूर्ण काम और बात
*जान दराज* नाम बहुत पसंद आया। 😊
बहुत अच्छा अनुभव। ज्याँ द्रेज़ के बारे में इस तरह जानकर बहुत अच्छा लगा।
हमने बड़ी उत्सुक्ता से “जियां द्रेज की साइकिल” को पढ़ा। अच्छा लगा। मैं ने बचपन में एक किरदार को साक्षात इसी तरह का देखा था। वह पटना युनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर और एच ओ डी थे। साइकिल और चप्पल से उनका गहरा रिश्ता था। कभी साइकिल पर वे चलते तो कभी साइकिल को ले कर वे चलते। अनायास ही याद आगए। आपने अच्छा किया कि जियां को बच्चों तक ले गए।